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Apr 14, 2025

सन्त कबीर दास: अमृतवाणी।

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1.मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीति। कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति॥ मन के हारने से हार होती है, मन के जीतने से जीत होती है (मनोबल सदैव ऊँचा रखना चाहिए)। मन के गहन विश्वास से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। 2.साँच बराबरि तप नहीं, झूठ बराबर पाप। जाके हिरदै साँच है ताकै हृदय आप॥ सच्चाई के बराबर कोई तपस्या नहीं है, झूठ (मिथ्या आचरण) के बराबर कोई पाप कर्म नहीं है। जिसके हृदय में सच्चाई है उसी के हृदय में भगवान निवास करते हैं। 3.प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिलै न कोइ। प्रेमी कूँ प्रेमी मिलै तब, सब विष अमृत होइ॥ परमात्मा के प्रेमी को मैं खोजता घूम रहा हूँ परंतु कोई भी प्रेमी नहीं मिलता है। यदि ईश्वर-प्रेमी को दूसरा ईश्वर-प्रेमी मिल जाता है तो विषय-वासना रूपी विष अमृत में परिणत हो जाता है। 4.जिस मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद। कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥ जिस मरण से संसार डरता है, वह मेरे लिए आनंद है। कब मरूँगा और कब पूर्ण परमानंद स्वरूप ईश्वर का दर्शन करूँगा। देह त्याग के बाद ही ईश्वर का साक्षात्कार होगा। घट का अंतराल हट जाएगा तो अंशी में अंश मिल जाएगा। 5.कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम। मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम॥ यह माया बड़ी पापिन है। यह प्राणियों को परमात्मा से विमुख कर देती है तथा उनके मुख पर दुर्बुद्धि की कुंडी लगा देती है और राम-नाम का जप नहीं करने देती

6. कबीर यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाँहि। सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माँहि॥ परमात्मा का घर तो प्रेम का है, यह मौसी का घर नहीं है जहाँ मनचाहा प्रवेश मिल जाए। जो साधक अपने सीस को उतार कर अपने हाथ में ले लेता है वही इस घर में प्रवेश पा सकता है। 7. सब जग सूता नींद भरि, संत न आवै नींद। काल खड़ा सिर ऊपरै, ज्यौं तौरणि आया बींद॥ सारा संसार नींद में सो रहा है किंतु संत लोग जागृत हैं। उन्हें काल का भय नहीं है, काल यद्यपि सिर के ऊपर खड़ा है किंतु संत को हर्ष है कि तोरण में दूल्हा खड़ा है। वह शीघ्र जीवात्मा रूपी दुल्हन को उसके असली घर लेकर जाएगा। 8. साँई मेरा बाँणियाँ, सहजि करै व्यौपार। बिन डाँडी बिन पालड़ै, तोलै सब संसार॥ परमात्मा व्यापारी है, वह सहज ही व्यापार करता है। वह बिना तराज़ू एवं बिना डाँड़ी पलड़े के ही सारे सांसार को तौलता है। अर्थात् वह समस्त जीवों के कर्मों का माप करके उन्हें तदनुसार गति देता है। 9. हम भी पांहन पूजते, होते रन के रोझ। सतगुरु की कृपा भई, डार्या सिर पैं बोझ॥ कबीर कहते हैं कि यदि सद्गुरु की कृपा न हुई होती तो मैं भी पत्थर की पूजा करता और जैसे जंगल में नील गाय भटकती है, वैसे ही मैं व्यर्थ तीर्थों में भटकता फिरता। सद्गुरु की कृपा से ही मेरे सिर से आडंबरों का बोझ उतर गया। 10. चाकी चलती देखि कै, दिया कबीरा रोइ। दोइ पट भीतर आइकै, सालिम बचा न कोई॥ काल की चक्की चलते देख कर कबीर को रुलाई आ जाती है। आकाश और धरती के दो पाटों के बीच कोई भी सुरक्षित नहीं बचा है।

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