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Apr 13, 2025

अष्टावक्र महागीता।

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अष्टावक्र मात्र बारह वर्ष की आयु में मिथिला की विद्वत् परिषद में जा पहुंचे और परम विद्वान बंदी को शास्त्रार्थ में पराजित करके अपने अद्भुत ज्ञान का परिचय दिया। मिथिला नरेश महाराजा जनक ने अष्टावक्र को गुरु मानकर ज्ञान प्रदान करने की प्रार्थना की, जिसे अष्टावक्र ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। जब जनक ने अष्टावक्र से कुछ प्रश्न किए तो उनके सहज, स्पष्ट और सारगर्भित उत्तर मिले। अंततः जनक ने पूछा- "ज्ञान की प्राप्ति में कितना समय लगेगा मुनिकुमार।" अष्टावक्र ने इसका सहज ही उत्तर दिया- "जितना समय घोड़े को एड़ लगाने में लगता है।" अष्टावक्र वास्तव में ऐसे ही परम ज्ञानी थे। उन्होंने जनक को जो ज्ञानः प किया, वही 'अष्टावक्र महागीता' कहलाया। इस ज्ञान को प्राप्त कर जनक कह उठे- क्व चास्ति क्वच वा नास्ति क्वास्ति चैकं क्व च द्वयं । बहुनात्र किमुक्तेन किंचिन्नोत्तिष्ठते मम ।। अर्थात्ः मैं सर्वदा स्वच्छंद हूं। अब मुझमें कहां होने और कहां नहीं होने का भाव नहीं। द्वैत और अद्वैत कहां? अब क्या सुनना, क्या कहना? अब मुझे कुछ भी नहीं सुहाता। मैं परम अद्वैत में स्थित हुआ... स्थित हुआ... स्थित हुआ।

" जनक ने अंतिम स्वीकारोक्ति की "मैंने पूर्ण बोध प्राप्त कर लिया। अब न द्वैत रहा और न अद्वैत! मैं सर्वदा मुक्त हुआ। अब कुछ भी कहने-सुनने को शेष नहीं रहा। अब कुछ भी मुझे उतिष्ठित नहीं करता। मैं पूर्ण हुआ। मैं स्थिर हुआ... स्थिर हुआ... स्थिर हुआ।" सर्वत्र मौन व्याप्त हो गया। अब न गुरु कुछ कहने को उद्यत हैं और न शिष्य सुनने की चेष्टा कर रहा है। कुछ शेष नहीं रह गया। होता तो अष्टावक्र मौन न होते। श्रोतीय भी ऐसे मौन नहीं रहता, पर ऋषियों की 'नेति-नेति' की भांति बोध से अद्वैत तक की यह संवाद-यात्रा अपूर्व आनंदमय रही। अष्टावक्र ने आत्म-ज्ञान के गूढ़ रहस्यों को जिस प्रकार परत-दर-परत खोला, वह विहंगम रहा। शिष्य ने समर्पण का अद्भुत प्रदर्शन किया। गुरु ने भी शिष्य की निष्ठा का मर्म जाना और स्वयं भी समर्पित हुए। महर्षि अष्टावक्र और राजर्षि जनक के बीच हुए ज्ञान के इस आदान-प्रदान का नाम ही 'अष्टावक्र महागीता' है। ११

त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः । शुद्धबुद्धस्वरूपस्त्वं मा गमः क्षुद्रचित्तताम्॥ यह समस्त विश्व तुझमें समाया है और तू समस्त विश्व में। सत्य यही है कि तू ही विश्व है, विश्व ही तू है। तू सर्वदा मुक्त और शुद्ध स्वरूप है, बस क्षुद्र प्रवृत्तियां तेरे चित्त को भ्रमित करके तुझे विकारों का प्रिय बना देती हैं और तू सत्य से दूर हो जाता है।

उरक उवाय- श्लोक कथं ज्ञानमवाप्नोति, कथं मुक्तिर्भविष्यति । वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद्ब्रूहि मम प्रभो॥ 111 सामान्य अर्थ जिज्ञासु जनक गुरुवदना करके आत्म-ज्ञान की लालसा में अष्टावक्र से विनयपूर्वक प्रश्न करते हैं- 'हे गुरुदेव सच्चे ज्ञान की प्राप्ति का सरल उपाय क्या है? मुक्ति के साधन कौन से हैं? इस भवसागर से पार कैसे उतरा जा सकता है और आसक्तियों को कैसे त्याग सकते हैं? आप इन प्रश्नों का उत्तर देकर मुझे कृतार्थ करें।' विशेष विवेचना मानव जीवन बड़े ही पुण्य प्रभावों से प्राप्त होता है और देवता भी मानव जीवन पाने की आकांक्षा रखते हैं, क्योंकि एकमात्र इसी योनि में पूर्ण मुक्ति (मोक्ष) का अवसर मिलता है। बुद्धि, विवेक और ध्यान से मनुष्य आत्मा के रहस्य को जानकर आवागमन से मुक्त हो जाता है। जिज्ञासु जनक विवेकपूर्ण साधक थे और सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए विद्वानों की संगति करते थे, परंतु सच्चे गुरु के अभाव में ज्ञान-पिपासा की तृप्ति अभी तक नहीं हो पाई थी। वेद एवं धर्म-शास्त्रों के ज्ञान से क्षणिक शांति तो प्रतीत होती है, परंतु पूर्ण संतुष्टि नहीं। सच्चा गुरु ही सच्चे ज्ञान का संप्रेषण कर सकता है। मुमुक्षु शिष्य तभी समर्पित होता है, जब गुरु उसमें एकात्म हो जाता है। यही गुरुता की प्रवृत्ति है। जनक को अभी तक ऐसे गुरु का अभाव था, जो उन्हें अष्टावक्र के रूप में मिला। वे विनय भाव से ऐसे प्रश्न करते हैं, जो अभीष्ट हैं। सच्चे ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग, मुक्ति के साधन और वैराग्य प्राप्ति का योग। शिष्य को ज्ञात हो गया है कि उसे सद्‌गुरु की प्राप्ति हो गई है और अब उसके अंतर की समस्त जिज्ञासाओं का समाधान हो जाएगा। ज्ञान, मुक्ति और वैराग्य को विस्तृत परिप्रेक्ष्य में जानने का

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